स्वाहा / अभिनव अरुण
आदर्श और यथार्थ की समिधा में स्वाहा होता कवि
मुख्य धारा से धकियाया हुआ
उपन्यास के प्लाट तलाशता
शहर की अँधेरी गलियों में गुम होने को अभिशप्त है
मंचों पर कविता श्रृंगार के लिपिस्टिक लगा
मुस्कुरा रही है गा रही है छा रही है
रियाया खुश है न्योछावर लुटा रही है
ख़ालिश अनारकली उतर आई हो जैसे फ्रॉम आरा
लाल पीले छापे वाली मस्त चटख गेयताओं को समेटे
चकाचौंध की चुनरी के दाग़ समेटती
उधर चश्मों के बाज़ार में सौदागरों को
कीमत लगाने भर से मिल रही है ऊंची कीमत
पारदर्शी स्वप्निल संसार दिखाने वाले चश्में
पुरस्कार दिलाने वाले चश्मे
प्रकाश में लाने वाले
पांच तारा गोष्ठियां सजाने वाले
रूपक छंद अलंकार के पैमाने छलकाने वाले चश्में
कोई बिक रहा है कोई बिकने को तैयार है
भटक रही है तो कविता
निरुद्देश्य