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स्वीकारोक्ति / प्रतिभा किरण
Kavita Kosh से
मैं तुम्हारे पाँवों के नीचे
सड़क बनकर बिछा हूँ
और तुम एक
ढीठ
अड़ियल
यातायात के नियमों का
पालन करते हुए
मेरे हृदय पर
आघातें करती हुई चली जा रही हो
तुम ज्ञान हो अब
तुम्हें रोकना निरर्थक होगा
तुम्हें सीख लूँगा अब
बिना किसी दण्ड के
तुम सजल थी
उड़ गई एक दिन भाप की तरह
मैं पेंदी में भी न बचा पाया
तुम्हें अपनी अग्नि से
एक जङ्गल की खीज लिए
पत्ते सा तुम को गिरते देखा
तुम अनन्त में जा मिली और
मैं जोड़ न सका वापस
तुम हिसाब-किताब की
इतनी पक्की
कि तुम्हारी पूर्वमृत्यु भी
किताब में दबकर हुई
मैं छद्म शान्ति का बुना हुआ
समझ ही नहीं पाया कि
तुम्हारा प्रवेश ही
एक भूला पर्व था
तुम जाती ही तो रही थी
तुम समय थी-नगण्य
तुम्हें स्वीकार न कर सका
तुम सत्य थी-कटु