स्वीकार लिया भुजबन्ध / शब्द के संचरण में / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
मैं खण्ड-खण्ड हो गया, एक सम्मूर्तन के लिये!
स्वीकार लिया भुजबन्ध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये!
तन तो प्रसून था, बिखर गया पर मन मकरंद हुआ,
अंतर्ध्वनि को इतना गाया, सम्भाषण छन्द हुआ,
मैं कण्ठ-कण्ठ हो गया, एक सम्बोधन के लिये!
स्वीकार लिया भुजबन्ध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये!
मैं किरण-किरण डूबा जल में, बादल-बादल उभरा,
सूरज सागर हो गया, और सागर कुहरा-कुहरा,
मैं रूप-रूप हो गया, एक अनुगुन्जन के लिये!
स्वीकार लिया भुजबन्ध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये!
मैंने अनन्त पथ को गति की सीमा में बांध लिया,
अपनी गूँगी-बहरी धुन को, अक्षय संगीत दिया,
मैं गीत-गीत हो गया, एक रस-चेतन के लिये!
स्वीकार लिया भुजबन्ध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये!
मैंने असंख्य बिम्बों में मनचाहे आकार जिये,
आक्षितिज वेंणु-सी बजे, कि ऐसे स्वर-सन्धान किये,
मैं नाद-नाद हो गया, एक रस-चेतन के लिये
स्वीकार लिया भुजबन्ध, एक त्रिभुवन क्षण के लिये!