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स्वीकार / मनोज कुमार झा
Kavita Kosh से
गगन देखता हो प्रसन्न
बारिश के शीशे से
कभी झमझम मुटाता
तो कभी झिहिर झिहिर पतराता शीशा।
हमारी ही भीत धँसती बढ़ रहे जल के जोर से
हमारे ही पेट कटते, खेत फटते लौट रहे मेघों के पुच्छ-प्रहार से
और हम ही चुनने उतरते आँगन में जल हो रहीं बर्फ की गोलियाँ।