स्वेटर बुनती स्त्रियाँ / सुभाष शर्मा
जमीन पर बैठी गर्भवती स्त्रियाँ
स्वेटर बुनने में
फूल के बहाने
खाका खींचती हैं अपने भविष्य का
केले-सी कलाइयों की मोहड़ी,
चाँद-सा गला बनाती हैं
नापती हैं पेट की लम्बाई
और सीने की चौड़ाई
स्त्रियाँ पहले अपने बच्चों का,
फिर पतियों का स्वेटर बुनती हैं
और सबसे बाद में अपना,
वे कभी-कभी सोचती हैं
इस गलती सर्दी में
ढलती उम्र में
एक स्वेटर अपने देश के लिए भी बना ले !
जब नाप लेने की सोचती हैं,
सिहर जाती हैं एकाएक
याद करके
कि फुल स्वेटर कैसे बनेगा
जब दायाँ हाथ नाखून-सा पैर तक बढ़ा है
और बायें पर वर्षों से पलस्तर चढ़ा है ।
तो हाफ ही सही
नहीं, नहीं
पेट तो रोजाना तीर की रफ्तार
गर्मी का कुआँ बन रहा है
और पीठ धनुष !
अंत में स्त्रियाँ
गिन-गूँथकर
अपने पेट की ओर देखकर
यह सवाल कल के लिए
'आने वाले' पर छोड़ देती हैं
जैसे गायें 'निमका' लेती हैं खूँटे से पगहा ।
दूसरे पहर
अपने मीठे दर्द को भुलातीं
सपनों को पगुराती
सोचती हैं स्त्रियाँ
काले ऊन के स्वेटर में
एक ओर बना दें
दूध पीता बछड़ा,
दूसरी ओर सूरज से खेलता बच्चा ।