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स्वेटर / सरोज परमार
Kavita Kosh से
इस स्वेटर को बुनते
बुन गई पड़ोसन की चुगली
दूरदर्शन के विज्ञापन
सासु की झिड़कियाँ
बड़बड़ महरी की .
लिपटाई इसमें आगत पलों की
तरुण कल्पना.
कुछ फन्दों में
अटकी तकरार
कुछ में सपने
कुछ में मनुहार
कहीं हींग हल्दी की सुवास भी.
फन्दों के बढ़ने पर बढ़ा
उमंगों का कलश
घटाई में घट गईं चिन्ताएँ
इसको सिलते सिल दीं कड़ियाँ अतीत की
ताकि
महसूसो नर्म स्पर्श
पिघलो
हाथों की गर्मी से
और लौटो
उस दहलीज़ पर
जिसे सुबह लाँघा था.