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हँसना चाहता हूँ / हरिदेव सहतू
Kavita Kosh से
मैं कवि नहीं,
लेखक नहीं,
सूरीनाम के वनों के काँटों के बीच
खिलने वाली एक कली की तरह
खिलना चाहता हूँ।
खुश हो मुस्कुराता रहता
फैलाता सुगन्ध
हरता दुर्गंध
शान्त रखता अपने वनों को।
चुभता यदि मुझे काँटा
हँस देता मुखड़ा मेरा
कवच बन करता रक्षा मेरी
बरसती आँख मेरी
सँभल-सँभल कर हृदय मेरा
क्षमा कर देता।
खिलखिलाकर
हँसना चाहता हूँ
औरों के साथ
औरों के लिए
अपनों के साथ
अपनों के लिए।