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हँसिया सवाल / रेखा
Kavita Kosh से
अँधेरी गलियों में
भटकने के बाद
जब भी लौटी हूँ तुम्हारे द्वार
तुम टटोलते हो मुझे
सिर से पाँव तक
क्या तुम सहला सकोगे
काले गुलाब की तरह
मेरे रोम-रोम में चिपका अँधेरा
अँधेरे ने खोदी है
मेरी देह में खंदकें
पर विषपायी शिव की तरह
कंठ में लिये बैठी हूँ
समूचा हलाहल
अपना उजला सच
पवित्र रखा है गंगा की तरह
ऊँचे माथे पर
तुम कहो तो
हर कोने में रोप आऊँगी
उजाले के अँकुर
बस,अपनी आँखों से
झड़ जाने दो
यह हँसिया सवाल
जो मेरे सच में
फाँस -सा गड़ जाता है।