अँधेरी गलियों में
भटकने के बाद
जब भी लौटी हूँ तुम्हारे द्वार
तुम टटोलते हो मुझे
सिर से पाँव तक
क्या तुम सहला सकोगे
काले गुलाब की तरह
मेरे रोम-रोम में चिपका अँधेरा

अँधेरे ने खोदी है
मेरी देह में खंदकें
पर विषपायी शिव की तरह
कंठ में लिये बैठी हूँ
समूचा हलाहल
अपना उजला सच
पवित्र रखा है गंगा की तरह
ऊँचे माथे पर

तुम कहो तो
हर कोने में रोप आऊँगी
उजाले के अँकुर
बस,अपनी आँखों से
झड़ जाने दो
यह हँसिया सवाल
जो मेरे सच में
  फाँस -सा गड़ जाता है।

इस पृष्ठ को बेहतर बनाने में मदद करें!

Keep track of this page and all changes to it.