भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हँसी आती नहीं है ... / ओमप्रकाश यती
Kavita Kosh से
हँसी आती नहीं है और रो सकते नहीं हैं
बहुत अफ़सोस है हमको कि हम बच्चे नहीं हैं
बिठाकर पीठ पर बच्चे को खुद बहला दिया कर
खिलौने आजकल बाज़ार में सस्ते नहीं हैं
ग़लत हो या सही, दौलत कमानी ही पड़ेगी
हमारे सामने क्या दूसरे रस्ते नहीं हैं ?
कभी इंसानियत की शर्त होती थी यही शय
मगर अब दूर तक ईमान के चर्चे नहीं हैं
दिखाना पड़ गया औलाद को क़ानून का डर
बुज़ुर्गों के लिए हालात ये अच्छे नहीं हैं