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हँसी का नकाब / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
Kavita Kosh से
क्या तुम हँस रहे हो
क्या सचमुच,
तुम हँस रहे हो दोस्त?
मुझे तो
सुनाई दे रही है
दुखभरी आवाजें
अंदर ही अंदर
खदबदा रही यादें
रेगिस्तान का सफर
चल रहा सदियों से
इस चश्मे को
जीवन मत समझो
जितना सह लोगे
उतने तपाये जाओगे
अगर छप्पर फाड़ के दिया
तो हाथ डाल के लिया
किसने नहीं खोया अपनों को
कौन नहीं खोयेगा
आखिर तो हलक सूखेगा
तड़पोगे हर पल
कहाँ कोई हाथ?
कहाँ कोई राहत?
हँसोगे
खुद पर हँसोगे
सब कुछ सहोगे
बताओ मेरे दोस्त
क्या सचमुच ही
तुम अंदर से हँसोगे?
या यूँ ही
हँसी का नकाब चढ़ाओगे
कितने खुश हो तुम
ये जतलाओगे
दोस्त
तुम्हें क्या पता
हँसी-हँसी में भी फर्क होता है
तुम्हारी तो हँसी में भी
रोना नजर आता है
कितना भी छिपा लो
तुम्हारा कद, फिर भी
बौना नजर आता है।