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हँसी की नमी / प्रेमशंकर शुक्ल
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बहुत आवाज़ है तुम्हारे आसपास
बहुत सूनापन भी तो है
उसे कैसे लिखूँ
भाषा के बाहर कुछ सूझता नहीं
भाषा में कह नहीं पा रहा बड़ी झील
सूरज की किरणें ज़रूर कहीं
किनारों की उन छायाओं को जगा रही हैं
जो कितने दिनों से सोई पड़ी हैं
तट की झाडि़यों में
दुबके हुए हैं प्रेमी-युगल
उनकी कनबतियों से वहाँ कुछ
फूल खिल गए हैं
पत्थरों में थोड़ी नमी आ गई है उनकी
हँसी की