भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हंडा / नीलेश रघुवंशी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक पुराना और सुंदर हंडा
भरा रहता जिसमें अनाज
कभी भरा जाता पानी
भरे थे इससे पहले सपने।

वह हंडा
एक युवती लाई अपने साथ दहेज में
देखती रही होगी रास्ते भर
उसमें घर का दरवाज़ा।

बचपन उसमें अटाटूट भरा था
भरे थे तारों से डूबे हुए दिन।
नहीं रही युवती
नहीं रहे तारों से भरे दिन
बच नहीं सके उमंग से भरे सपने।

हंडा है आज भी
जीवित है उसमें
ससुराल और मायके का जीवन
बची है उसमें अभी
जीने की गंध
बची है स्त्री की पुकार
दर्ज है उसमें
किस तरह सहेजती रही वह घर।

टूटे न कोई
बिखरे न कोई
बचे रह सकें मासूम सपने
इसी उधेड़बुन में
सारे घर में लुढ़कता-फिरता है हंडा।