हक़ीक़तों को भी उसने सराब ही लिक्खा / रमेश तन्हा
हक़ीक़तों को भी उसने सराब ही लिक्खा
सद-ऐतबार खबर को भी ख़्वाब ही लिक्खा।
जो पूछो कुछ तो पलट कर सवाल करता था
खुद अपनी ज़ात को उसने अज़ाब ही लिक्खा।
न चांदनी से निबाहा कभी खुलूस उसने
न माहताब को भी माहताब ही लिक्खा।
सभी को ग़ैर समझने की उसकी आदत थी
खराब था न जो उसको खराब ही लिक्खा।
निगाहे-लुत्फो-करम को कहा फ़रेब उसने
नमूदे-जज़्बो-असर को सराब ही लिक्खा।
यदे-खुलूस को भी अपना हाथ तक न दिया
तपाके-दोस्तां को ग़म का बाब ही लिक्खा।
चराग़-पा रहा खुद से भी दूसरों से भी
इनायतों को भी उसने इताब ही लिक्खा।
था सर्फो-नहव का कायल, उरूज़दान था वो
सुख़नवरी को भी उसने हिसाब ही लिक्खा।
किसी के दिल में वो कोई जगह बना न सका
खुद आइनों ने उसे ला-जवाब ही लिक्खा।
अजीब दोस्त था मेरा, हमेशा उसने मुझे
हुजूरे-वाला कहा, आं जनाब ही लिक्खा।
सितम-ज़रिफि-ए-तखलीके-कायनात तो देख
कि ज़िन्दगी को भी उसने हबाब ही लिक्खा।
उफुक़ को छू के ही बस उसको लौट आना था
सफ़र को उसने मगर बे-हिसाब ही लिक्खा।
कुछ ऐसे लोग भी 'तन्हा' हुए हैं दुनिया में
शिकस्त ने भी जिन्हें कामयाब ही लिक्खा।