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हक़ीक़त कम अदाकारी बहुत है / सुरेश चन्द्र शौक़

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हक़ीक़त कम अदाकारी बहुत है

तिरी ग़फ़्लत में हुशयारी बहुत है


बड़े मालिक हैं हम मुल्क़े—वफ़ा में

यहाँ अपनी ज़मींदारी बहुत है


हमें क्यों नफ़रतों से मारते हो

हमें तो प्यार ही कारी बहुत है


चलन बिगड़ा हुआ है अब जहाँ का

शराफ़त कम है अय्यारी बहुत है


मिरी अच्छों से कुछ जमती है कम—कम

ख़राबों से मगर यारी बहुत है


दिये की लौ को तुम बुझने न देना

कि हम पर रात ये भारी बहुत है


जराइम हैं कि बढ़ते जा रहे हैं

सुना था अब निगह—दारी बहुत है


समझना कुछ नहीं सब कुछ समझकर

इसी में अब समझदारी बहुत है


बहुत मासूम हो तुम देखने में

मगर बातों में तह—दारी बहुत है


वो शायर है यक़ीनन एक अच्छा

मगर धुन उसकी सरकारी बहुत है


बड़ा मुश्किल है बचना दिल के हाथों

कि मुहलक दिल की बीमारी बहुत है


नहीं मिलता कोई हम-दर्द सच्चा

दिखावे की तो ग़म-ख़्वारी बहुत है


किसी दिन हम रवाना हो रहेंगे

सफ़र की ‘शौक़’! तैयारी बहुत है.


ग़फ़लत=अचेतना;कारी =घतक;;अय्यारी=छल;जराइम=अपराध; निगहदारी=चौकसी; मुहलक=घातक; रवाना=प्रस्थित