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हक़ीक़त को तुम और न हम जानते हैं / विष्णु सक्सेना
Kavita Kosh से
हक़ीक़त को तुम और न हम जानते हैं।
मुहब्बत को बस इक भरम जानते हैं।
मैं क्या इसके बारे में मंज़िल से पूछूँ,
थकन मेरी मेरे क़दम जानते हैं।
हमें भूल जाने की आदत है लेकिन,
तुम्हे हम तुम्हारी क़सम जानते हैं।
है छुपना कहाँ और बहना कहाँ है,
ये आंसू सब अपना धरम जानते हैं।
छलकती है क्यों आँख हमको पता है,
कहाँ सब बिछड़ने का ग़म जानते हैं
दिया तो है मजबूर कैसे बताये
उजालों की तकलीफ तम जानते हैं
है जो कुछ मयस्सर हमें इस जहाँ में
हम उसको खुदा का करम जानते हैं।