भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हक़ीक़त में बाबे-महब्बत नहीं / मेला राम 'वफ़ा'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हक़ीक़त में बाबे-महब्बत नहीं
वो दिल जो खराबे-महब्बत नहीं

नहीं हर बशर लज़ज़ते-ग़म का अहल
की हर दिल को ताबे-महब्बत नहीं

ये शहर-निगारां है ए दिल यहां
महब्बत जवाबे महब्बत नहीं

हमारी निगाहों में क़ाफिर है वो
जो अहले-किताबे महब्बत नहीं

गरां है मुझे मुफ़्त भी वो किताब
कहीं जिस में बाबे-महब्बत नहीं

तग़ाफ़ुल तो है हुस्न की एक अदा
तग़ाफ़ुल हिजाबे-महब्बत नहीं

वो ख़ाली है जो दर्द-ओ-तासीर से
नवाए-रबाबे-महब्बत नहीं

महब्बत का हासिल कुछ ऐ दोस्तो
बजुज़ इजतिराबे महब्बत नहीं।

तू सर ख़ुश है ऐ दिल जिस उम्मीद पर
वो ताबीरे-ख़ाबे- महब्बत नहीं

ये उज़्र-ए-सितम और जो कुछ भी हो
मगर इंकिलाबे-महब्बत नहीं।

जो ढलता नहीं उम्र भर वो शबाब
सिवाए शबाबे-महब्बत नहीं

क़ुबूल ऐ खिज़र मुझ को आबे-हयात
बजाए शराबे-महब्बत नहीं

सरूर आवरी में मये-अरग़वां
हरीफ़े शराबे-महब्बत नहीं

है दरमां पज़ीर ऐ 'वफ़ा' हर अज़ाब
मगर हाँ अज़ाबे-महब्बत नहीं।