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हक / अरुण कमल
Kavita Kosh से
मेरे घर से सटा सरसों का खेत यह
मेरा नहीं
लेकिन रोज़ रात मेरी कोठरी में
आती है सरसों के फूलों की कौंधती गंध
एक ही वार में काटती मुझे
और रात भर मैं जगा रह जाता हूँ
छोटी-सी कोठरी गंध-भीड़ भरी
क्या थोड़ा भी हक़ नहीं मेरा इस खेत पर?
मुझ को मिल गई है सारी सुगन्ध
दाना ले जाए भले खेत का मालिक...
थोड़ा भी हक़ नहीं?