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हज़ारों साल पहले / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
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					और क़रीब ना आ सकी वो; 
दूर से ही देखा भर था, केवल एक बार;  
मुझे तो लगा था 
सर को हल्के से हिलाया भी था उसने 
चकित होकर; 
फिर भी उसके देखने का अंदाज़ –
एक उदासी सी थी आँखों पर छायी,
सात - आठ – नौ – दस दिन 
उन्हीं उदास आँखों से  –
निहारती रही वो  
शायद कुछ अपेक्षा भी रही होगी –
पर क़रीब ना आ सकी वो; 
कारण, हम पक्षी तो थे नहीं -
यदि होता 
माघ के इस नीले आकाश में 
(उसे साथ लेकर) एक बार उड़ चलता उजले समुद्र की ओर 
पेलिकन की तरह 
एक पक्षी सी जीवन की कामना की थी मैंने 
एक पक्षी सी जीवन की कामना की हो उसने भी;  
हो सकता है हज़ारों साल बाद 
माघ के नीले आकाश में 
समुद्र की ओर उड़ते हुए  
हम सोचते 
हज़ारों साल पहले भी इसी तरह उड़ जाना चाहते थे हम दोनों।
 
	
	

