हज़ार-हज़ार / राजेन्द्र शाह
हज़ार-हज़ार ऊँटों के कंधों-सा विस्तृत मरुथल
किसे खोजने निकला हूँ मैं ?
पीछे छूटा मेरा अंतिम पदचिह्न भी मिटा देता है
कोई,
यहाँ कहीं भी पगडंडी नहीं,
सिवान नहीं,
दिशा नहीं,
अवरोध नहीं कोई और
कहीं कोई चिह्न नहीं ।
कुछ खोज रहा हूँ मैं ।
खोज रहा हूँ पगडंडी ?
सिवान ? दिशा ? अवरोध ?
कोई अवशेष ?
पता नहीं मुझे ।
एकदम खुले में जैसे खो गया हूँ ।
सामने वाले रेत के टीले के उस पार से
आ रही है एक भीगी हँसी,
दोनो के बीच का अंतर घटते ही
समय के लंबे अंतराल की पहचान होती है
वहाँ है एकाध हाथ गहरा कुंड
पार्श्व में हरे पत्तों वाला खड़ा है तमाल वृक्ष
छोटी-सी दृष्टि में सब समा जाता है ।
इस पार खुली हुई जड़ों में दिखाई देता है श्वेत
रुंड
इसे खोज रहा था मै,
भीगी हँसी के आविर्भाव का आदि कारण ।
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति