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हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन / 'बाकर' मेंहदी

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हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन
बिछड़ के तुझ से तेरे शहर में रहा न गया

कभी ये सोच के रोए के मिल सके तस्कीं
मगर जो रोने पे आए तो फिर हँसा न गया

कभी तो भूल गए पी के नाम तक उन का
कभी वो याद जो आए तो फिर पिया न गया

सुनाया करते थे दिल को हिकायत-ए-दौराँ
मगर जो दिल ने कहा हम से वो सुना न गया

समझ में आने लगा जब फ़साना-ए-हस्ती
किसी से हाल-ए-दिल-ए-राज़ फिर कहा न गया