भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन / 'बाकर' मेंहदी
Kavita Kosh से
हज़ार चाहा लगाएँ किसी से दिल लेकिन
बिछड़ के तुझ से तेरे शहर में रहा न गया
कभी ये सोच के रोए के मिल सके तस्कीं
मगर जो रोने पे आए तो फिर हँसा न गया
कभी तो भूल गए पी के नाम तक उन का
कभी वो याद जो आए तो फिर पिया न गया
सुनाया करते थे दिल को हिकायत-ए-दौराँ
मगर जो दिल ने कहा हम से वो सुना न गया
समझ में आने लगा जब फ़साना-ए-हस्ती
किसी से हाल-ए-दिल-ए-राज़ फिर कहा न गया