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हज़ार साल / सुशील कुमार झा / जीवनानंद दास
Kavita Kosh से
जुगनुओं की तरह
करते हैं खेल सिर्फ
काल के अंधकार में
हज़ारों हज़ार साल
चिर दिन
चारों ओर
रात का निदान
रेत पर बिखरी मौन चांदनी
और देवदार की स्तब्ध छाया
जैसे नीरवता ने रखा हो थाम
इतिहास में गुम किसी जीर्ण शीर्ण म्लान साम्राज्य को
शान्ति है चारों ओर
काल के आगोश में हम
और
हो चुका था जीवन का सब लेन देन
अचानक
एक सरसराहट सी होती है कानों में
‘याद है?’
और एक बिजली सी कौंध जाती है मन में
‘बनलता सेन?’