हजारीबाग़ में भारत यायावर / भारत यायावर
एक समय था ,जब हजारीबाग़ में बहुत कौए रहते थे
न जाने कहाँ, किधर चले गए ?
वे चाय की दुकानों पर बहस करते मिल जाते थे
कभी-कभी मोहन टाकीज के सामने पकौड़ी खाते मिल जाते थे
दिनभर काँव-काँव मची रहती थी
सब उड़ गए !
और अब ये आलम है
कुछ हौवे हैं
और हाँव-हाँव है
फिर भी मैं
हजारीबाग़ में रहता हूँ
हजारीबाग़ को जीता हूँ
हजारीबाग़ में पेड़-पौधों की भरमार है
झील में झील है, तालाब हैं
अंग्रेज़ पदाधिकारी का बनवाया यह शहर
अब भी उनके नाम को जीवित रखे है
उनके नाम पर बाॅडम बाज़ार है
बढ़ई लोगों का मुहल्ला बढ़ी बाज़ार हो गया है
कलकत्ते के लेखक पहले आते थे
यहाँ के सुरम्य वातावरण में मोटे उपन्यास रचते थे
इसी शहर में मन्मथनाथ गुप्त की ससुराल थी
बिजेन गुप्ता की बेटी माया गुप्त उनकी धर्मपत्नी थी
उन्होंने अपने उपन्यासों में हजारीबाग़ को रचा था
फणीश्वरनाथ रेणु ने परती परिकथा के कई-कई पृष्ठ रचे थे
क़स्बे की लड़की उन्हें यहीं मिली थी
तीसरी क़सम अर्थात् मारे गए गुलफ़ाम का हिरामन हजारीबाग़ का ही था
यहीं रवीन्द्र ने कई कृतियों की रचना की थी
सुबोध घोष जैसा अमर कथाकार बंग साहित्य को हजारीबाग़ ने दिया था
सुभाष की राजनीति यहीं से चमकी थी
रवीन्द्र नाथ टैगोर ने एक कविता लिखी थी :
एक जे छिलो बाघ
तार सर्व अंगे दाग
आइना से हठात् देखे
होलो बिषम राग
झगरू के से बोललो
जे के एखनू तुई भाग
जा चलो तुई प्राग
साबान जोदि ना मिले
तो जास हजारीबाग !
और रवीन्द्रनाथ ठाकुर का नौकर झगरू साबान अर्थात् साबुन लेने हजारीबाग़ जब आया तो भारत यायावर से टकरा गया ।
भारत यायावर ही वह साबुन था ,जिसकी खोज में वह हजारीबाग़ आया था !
भारत यायावर के मिलने से पहले वह कई लोगों से मिल चुका था ।
एक कहानीकार सेक्सोलोजिस्ट था । उसकी कहानियाँ पढ़कर लोग कामुक हो जाते थे ।
एक कहानीकार दुकान सजाकर बैठता था । वह कहानी लिखने की जगह अख़बारों में रिपोर्ट लिखा करता था ।
एक कहानीकार ज्योतिषी ज़्यादा था, लेकिन अपने को लेखक ही समझता था । समझने से क्या होता है ? दिखाने को उसके पास अपनी लिखी एक किताब भी नहीं थी ।
हजारीबाग़ में भोपाली सन्तोष चौबे ने अपने विश्वविद्यालय की एक शाखा खोली थी। दूर देश के कौए दाना चुगने आते थे । भारत यायावर को कोई पूछता ही नहीं था !
हजारीबाग़ में बंशीधर रूखैयार भारत यायावर की ओर स्नेह से भरपूर चेहरा लिए देखते थे और अचानक कवि हो गए थे । वाह भई वाह ! इतनी कविताएँ कहाँ छुपाकर रखे थे ?
एक दिन पंकज मित्र हंसगुल्ला को व्यंग्य से भरकर चार कहानी-संग्रह लेकर आए । मैंने कहा, अब आप हजारीबाग़ से ऊपर उठ गए हैं और वे भी इस बात को मानकर राँची चले गए हैं । न जाने राँची के पागलख़ाने में कौनसा आकर्षण है ! वहाँ सही खोपड़ी की तलाश में भटककर शिवचन्द्र शर्मा ने बहुत पहले 'सारिका 'में एक लेख लिखा था, फिर जासूसी कहानियों का एक संग्रह छपवाया था, जिसमें सिर्फ़ पागलपन की कहानियाँ थीं । हजारीबाग़ के शम्भुनाथ सिंह बादल राँची में ही निर्मित हैं । हजारीबाग़ का विद्रोही आजकल ख़ूब राँची जाता रहता है । पागलपन ही उसे खूब भाता है ।
रवीन्द्रनाथ ठाकुर का झगरू मुझे साबुन समझकर मुझी से चिपक गया है और लोग अब मुझे भारत यायावर की जगह झगड़ावर कहने की सोच रहे हैं !
लेकिन मैं मुन्नाकुमार सिंह को याद किया करता हूँ जो मुझे पूज्य समझते थे । हजारीबाग़ के कचरे को साफ़ कर दिल में हजारीबाग़ को गठरी की तरह बाँधकर चले गए ! अभी पटना में है । कभी भाड़े की व्यवस्था हो तो पटना जाकर उस गठरी को देख आऊँ !
फणीश्वरनाथ रेणु ने लिखा है कि यहाँ की स्वच्छ हवा में सांस लेने घुमक्कड़ी करने वाले आते हैं और इसे गन्दा कर जाते हैं । मुन्नाकुमार सिंह ही वह स्वच्छता - प्रेमी हैं जो इसे पवित्र बना जाते हैं ।
हजारीबाग़ में कई-कई बाग़ हैं । लेकिन अब बाग़ धीरे-धीरे ग़ायब हो रहे हैं । जैसे बाघ ग़ायब हो रहे हैं ! केनेडी पहाड़ी पर बैठकर कभी मैं चिन्तन किया करता था और कविताएँ लिखा करता था । अब भी अपने घर में बैठकर कुछ न कुछ लिखता रहता हूँ, पर पढ़ने वाला कोई नहीं मिलता । अकेलेपन में रहता हूँ और राँची जाने की कोई इच्छा नहीं ।
झगरू मेरे से ऐसा चिपक गया है कि उससे अलग होना मुश्किल है ।
मैं झगड़ावर ही सही, पर सही बात कहने से हिचकता नहीं हूँ । हजारीबाग़ में रहता हूँ और चिन्तन करता रहता हूँ कि मैं हूँ, यहाँ हूँ, पर क्यों हूँ ? किसलिए हूँ ? कबतक हूँ ?
झगरू मुझे समझाता रहता है :
तुम हो ।
क्योंकि तुम भावों से भरपूर
और मानवीयता का चेहरा हो ।
तुम रच रहे हो,
यही तुम्हारे जीवन की सार्थकता है ।
हजारीबाग़ का होना है ।
हजारीबाग़ की धरती का गौरव होना है ।
हजारीबाग़ की परम्परा होना है ।
तुम ही हजारीबाग़ हो !