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हजारों मुखोटों के पीछे से / कपिल भारद्वाज
Kavita Kosh से
हजारों मुखोटों के पीछे से,
खनखनाती हंसी हंसता है एक विकृत दिमाग,
जिसकी भयावहता ने लील लिया है,
जल-जंगल पर्वत-नदियों और खलिहानों के नूर को,
और टांक लिया है अपने लखटकिया सूटों में बटन की तरह !
सत्ता के अहंकार से दीपदीपाता उसका मुख,
बेशक नकली प्रसाधनों से उजला रहता है लेकिन,
उसके भीतर बैठे अंधेरे को स्पष्ट देखा जा सकता है,
उसके माथे की त्यौरियो में !
कोई समझाए उसे कि,
चमचमाते सूरज की रोशनी को लाठियों से नहीं पीटा जा सकता,
कोई बताए उसे कि
खील-बताशों सी मीठी हंसी को कप्तानों के बुंटो तले नहीं रौंदा जा सकता !