हताशा का गीत / पाब्लो नेरूदा / अशोक पाण्डे
मेरे आसपास की रात में से तुम्हारी स्मृति उभरती है
नदी मिलाती है अपना अदम्य रुदन समुद्र के साथ ।
भोर के समय परित्यक्त जहाज़ी घाटों की मानिन्द ।
यह विदा का क्षण है, जो त्याग दिए गए !
ठण्डे फूलों के सीस बरस रहे हैं मेरे दिल पर
ओ अवशेषों की गर्त, टूट चुके जहाज़ों की भीषण गुफा !
युद्ध और उड़ानें इकट्ठा हुईं तुम में
गीतों की चिड़ियों के पंख तुम में से उगे ।
सारा कुछ आत्मसात् कर लिया तुमने, जैसे दूरी करती है
जैसे समुद्र करता है, जैसे समय करता है । सारा कुछ तुम में डूबा ।
वह आक्रमण और चुम्बन का ख़ुशनुमा पल था
वह पल तिलिस्म का, लाइटहाउस की तरह दैदीप्यमान ।
कोहरे का मेरा बचपन । पंखों वाली और घायल आत्मा मेरी ।
ओ खो चुके खोजी, सारा कुछ तुम में डूबा ।
मैंने पीछे की तरफ़ खिसकाया परछाई की भीत को,
इच्छा और कर्म से परे, मैं बढ़ता चला गया ।
उफ़ देह, मेरी अपनी देह, वह जिसे मैंने प्रेम किया और खो दिया
इन भीगे पलों में बुलाता हूँ तुम्हें, तुम्हारे नाम के साथ उठाता हूँ अपना गीत
एक मर्तबान सरीखी तुम थीं — तुम्हारे भीतर रहा करती थी अनन्त कोमलता
और अनन्त विस्मृति ने चकनाचूर तुम्हें किया एक मर्तबान की तरह ।
वहाँ द्वीपों का काला एकाकीपन था
वहाँ, ओ प्रेम की स्त्री ! तुम्हारी बाँहों ने समोया मुझे ।
वहाँ प्यास और भूख थी, और तुम थीं फल ।
वहाँ दुख था और खण्डहर थे तुम थीं जादू ।
ओ स्त्री ! मैं नहीं जानता, कैसे समा पाती थीं तुम मुझे
अपनी आत्मा की धरती में, अपनी बाँहों के घेरे में
कितनी विकट और संक्षिप्त थी तुम्हारे लिए मेरी कामना
कितनी बेढब और नशे में चूर, कैसी कसमसाहट भरी और व्याकुल
ओ चुम्बनों की क़ब्रगाह ! आग अब भी है तुम्हारे मक़बरों में
अब भी दहकती हैं फूलभरी टहनियाँ, चिड़ियाँ चोंच मारती हैं उनमें
उफ़ ! दांतों के काटे होंठ और चूमे हुए अंग
ओह ! भूख से आतुर दाँत, उफ़ ! गुँथे हुए शरीर ।
उफ़ ! उम्मीद और कोशिश का वह पागल मिलन
जिसमें हम डूबे और दुखी हुए
और वह कोमलता, पानी और आटे जैसी हलकी
और वह शब्द जो होंठों पर शुरू ही हुआ था ।
यह थी मेरी क़िस्मत और इसी में थी मेरी इच्छा की यात्रा
और इसी में गिर पड़ी मेरी इच्छा, सारा कुछ तुम में डूबा ।
ओ अवशेषों की गर्त ! सारा कुछ तुममें डूबा
कैसे - कैसे दर्द को जवान नहीं भी तुमने, किन - किन लहरों ने तुम्हें नहीं डुबोया
एक लहर से दूसरी तक पुकारती गईं तुम, गाती रहीं
जहाज़ के अगले हिस्से में खड़े नाविक जैसी
तुम अब भी पल्लवित हुई गीतों में, तुम अब भी टूटी धाराओं में
ओ अवशेषों की गर्त, विस्फारित कटु कूप ।
म्लान अन्धे गोताख़ोर, गुलेल चलाने वाले भाग्यहीन,
खो चुके खोजी सारा कुछ तुम में डूबा ।
विदा का पल है, कड़ा ठण्डा पल
रात जिसे बांध देती है समयसारणियों से ।
समुन्दर की सरसराती पेटी तट की कमर पर कस जाती है
आह भरते हैं ठण्डे सितारे, काली चिड़िया कहीं और जाने को उड़ जाती है
भोर के समय वीरान जहाज़ी घाटों की तरह ।
सिर्फ़ एक थरथराती परछाईं ऐंठती है मेरे हाथों में ।
उफ़ ! हर चीज़ से कहीं दूर । उफ़ ! हर चीज़ से कहीं दूर ।
यह विदा का पल है, ओ परित्यक्त !
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अँग्रेज़ी से अनुवाद : अशोक पाण्डे