हत्या-बलात् का स्वर्ण युग / कुमार विक्रम
ऐसा नहीं है कि उस स्वर्ण युग में
पल प्रति पल सुबह-शाम दिन प्रति दिन
हत्याएँ व बलात्कार ही होते रहते थे
कई कई दिन यूँ ही बिना किसी घटना के भी निकल जाते थे
पर इस युग की सबसे बड़ी ख़ूबसूरती
कोर्ट कचहरी घरों में टीवी अख़बारों में
सड़क शासन प्रशासन लेखकों कवियों
आकाश पताल में
अच्छी हत्या व ब्लात् कैसे हो
इसपर निरंतर बहस
तर्क वितर्क लेख प्रतिलेख
का संगीत हमारे सामने बजता रहना था
नैतिकता और वाक् पटुता के नए आयाम बनाती हुई
बिलकुल एक नई संस्कृति
जिससे कोर्ट पूछता है
'इस हत्या को कैसे अंजाम दिया जाएगा?'
और पूरी गंभीरता से उत्तर दिया जाता था
' हमारे पास कई उपाय हैं
ट्रक से कुचल कर या फिर गोलियाँ बरसाकर
या फिर चाय में ज़हर देकर
बस कुछ मोहलत मिल जाए
बलात् के हमारे अपने मोडुल्य हैं
पड़ोसियों के घरों से खींचकर लाई जाएँगी
सात आठ नौ दस जितनी की भी ज़रूरत हो
बस कुछ मोहलत मिल जाए'
और सब को हत्या और बलात् के
मुकर्रर दिन का रहता है इंतज़ार
पर ऐसा कुछ होता नहीं है
बल्कि ऐसा ही आभास होता है
क्योंकि हत्या-बलात् के उस स्वर्ण युग की
सबसे बड़ी उपलब्धि यही थी
कि सब अच्छी हत्या-बलात् कैसे हो
इसपर ही चिंतन-मनन हो