हथियार हमेशा विकल्प बनकर नहीं आते / पराग पावन
मेरे सीने के अहिंसावादी हिस्से !
हथियार हमेशा विकल्प बनकर नहीं आते
आक्रोशित मुट्ठियों का कसाव
हमेशा हमारा चुनाव नहीं होता
फूलों के हथियार बनने का दर्द
गाँधी के दूसरे गाल से पूछो
या बुद्ध की प्रशान्त पलकों से
कि सामने खड़े आदमख़ोर बाघ से
जोड़ा हुआ कौनसा समीकरण समीचीन होगा
जिनके जवान माथे की बूढ़ी सिलवटों में
लहर खाते गेहूँ के खेतों का बिम्ब उभरता है
जिनकी अधनंग बच्चियों की हँसी से चटककर
सयान हो जाते हैं मटर के फूल
जिनकी पत्नियों के बदन की ख़ुशबू
महज जुते खेतों को सगी लगती है
संसदीय प्रस्ताव पारित करके
उनकी नाबालिग बलत्कृत तमन्नाओं से पूछो
कि बिरसा की पहली तीर की नोक पर
आखि़र क्या लिखा हो सकता है
रोती हुईं आँखों के पिसते हुए दाँतों की दुनिया में
लिखी जाती है जो सबसे पहली कविता
वह हथियारों के पक्ष में होती है
हथियारों को सम्बोधित करके
वह हथियारों से ही लिखी जाती है
मेरे सीने के समझौतावादी हिस्से !
हथियार हमेशा विकल्प बनकर नहीं आएँगे
आक्रोशित मुट्ठियों का कसाव हमेशा हमारा चुनाव नहीं होगा ।