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हदों के न होने की ज़िल्लत से हारे हुए / रियाज़ लतीफ़
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हदों के न होने की ज़िल्लत से हारे हुए
अबद के मुजस्सम किनारे हमारे हुए
नफ़स के दयारों में घोला था इक लम्स ही
निकल आए सारे फ़लक से उतारे हुए
अब अपनी नफ़ी में ज़रा ग़ोता-ज़न हो ही लें
कि सदियाँ हुईं ख़ुद को ख़ुद से उभारे हुए
पराई सियाही की आग़ोश में क्या मिले
जो ख़ुद दिल की ज़द पर जले वो सितारे हुए
ख़ुदा की ख़मोशी में शायद हो उस का वजूद
ज़माना हुआ नाम अपना पुकारे हुए
अधूर जहानों के तेवर अधूर ‘रियाज़’
ये सब तेरी तकमील के इस्तिआरे हुए