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हदों से बाहर भी होता है शब्द / प्रताप सहगल
Kavita Kosh से
चट्टानों को तोड़ कर
कंदुक सा उछलता आता है
कोई भाव
और शब्द की पोशाक पहन कर
हमारे होने का हिस्सा होता है
या फिर
समुद्र-तल से उठती कोई तेज़ तरंग
अपना सफ़र तय करती
टकराती है तट से
और कुछ सपनीले मोती छोड़ जाती है
अपनी दमक बिखेरते मोती
हमारे कंधों पर सवार हो जाते हैं
या फिर
दूर कंदराओं से उठती
गेरुआ गंध
समा जाती है नासिका-रंध्रों में
और अंदर ही अंदर्
कहीं खनक उठता है कुछ
शायद शब्द!
शब्द ब्रह्म है
और ब्रह्म ज्योतिर्पिण्ड
हिरण्यगर्भा
समझाया है महाजनों ने
पर शब्द नहीं है सिर्फ ब्रह्म
शब्द ब्रह्म होने का पूर्वाभास भी है
और पूर्वाभास
हदों को फलांग-फलांग कर
बिखर जाता है
चीहनी अनचीहनी दिशाओं में
ढोता है शब्द
भविष्य में अतीत !