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हमने इस बस्ती में / बनज कुमार ’बनज’

Kavita Kosh से
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अनजाने रस्ते हैं अजनबी इशारे हैं।
हमने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

इस बस्ती से याराना है, अपना तो आना-जाना है।
हर बार सोच कर आतें हैं, साँसों का क़र्ज़ चुकाना है।
कुछ गीत लिए फिरते हम तो बंजारे हैं।
हमने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

रिश्तों के बन्धन झूठे हैं कुछ हाथ-हाथ से छूटे हैं।
पहले तो झट आ जाते थे अब तो आँसू भी रूठे हैं।
हम जीवन के जलते-बुझते अंगारे हैं।
हमने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।

दुल्हन की डोली-सा ये घर फिरते लेकर हम इधर-उधर।
ये किसे ढँढ़ती रहती है हर रोज़ नज़र - हर रोज़ नज़र।
हम धड़कन के चलते-फिरते इकतारे हैं।
हम ने इस बस्ती में दिन-रात गुज़ारे हैं।