हमने पाल रखे है कई खुदा / राकेश पाठक
हमने पाल रखे है कई खुदा
और उनके तथाकथित महंथ और मौलवी भी
हमने खोल रखी है ईश्वर को पाने की दुकानें कई
खुदा, ईश्वर, अल्लाह को पाने की चाह में
हम गवां देते है अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा
उस आस्था और भगवान के नाम पर !
मूढ़ों की जमात छीन लेती है
हमारे बच्चों के रोटी के टुकड़े
और बेटियों की अस्मत भी
ईश्वर को पाने या खोने में हम बिक जाते है
हवन, रमण, गमन वाले बाबाओं के हाथ
पाप और पूण्य के इस ढोंग से बर्बाद होती रही है
हमारी पीढ़ी दर पीढ़ी।
मौत का महामृत्युंजय और शनि की साढ़े साती से शायद ही कोई बचा हो इस देश में।
ख़ौफ़ के इस बाजार में मन की गुलामी पर कोई संविधान लागू नहीं होता
क्योंकि मौत के व्यापार में तर्क हार जाता है आस्था के आगे हर बार।
विवेक की विवशता को भी विज्ञान दूर नहीं कर पाता।
हमारी विवेक शून्यता हमारी विवशता है
और कमजोरी भी।
क्योंकि त्रिशूल वालों ने इस कदर खोल रखी है जटायें अपनी
क़ि आदिम काट कूट जड़ता से आगे हम आज भी सोच नहीं पाते।
इनकी जांघे भी स्खलित हो रिस रही है
क्योंकि इनकी दुकानों में बिक रहा है हमसब का खुदा
खुदा भी अब पश्चिम का रुख किये नहीं मिलता
काबा के शैतान ने भी पुनः उगा लिया है अपना
रक्त सना जीभ और लंबा नाख़ून
खोद डाली है धरती पूरी की पूरी
क्योंकि खुदा ने भी बदल लिया है अब घर अपना !