हमने भी जाँ गँवाई है इस मुल्क़ की ख़ातिर / मुकुल सरल
हमने भी जाँ गँवाई है इस मुल्क की ख़ातिर
हमने भी सौ सितम सहे इस देश के लिए
ये बात अलग हम किसी वर्दी में नहीं थे
कुर्ते में नहीं थे, किसी कुर्सी पे नहीं थे
सड़कें बिछाईं हमने, ये पुल बनाए हैं
नदियों को खींचकर तेरे आँगन में लाए हैं
खेतों में हमारे ही पसीने की महक है
शहरों में हमारी ही मेहनत की चमक है
भट्टी में हम जले, हमीं चक्की में पिसे हैं
पटरी से हम बिछे, हमीं तारों में खिंचे हैं
हमने ही आदमी को खींचा है सड़क पर
बेघर रहे हैं हम, मगर सुंदर बनाए घर
हर एक इमारत में हम ही तो खड़े हैं
इस देश की बुनियाद में हम भी तो गड़े हैं
रौशन किया है ख़ून-पसीने से ये जहाँ
क्या हमको कभी ढूँढा, हम खो गए कहाँ?
हमको तो रोने कोई भी आया न एक बार
दुश्मन ने नहीं, अपनों ने मारा है बार-बार
हम भी तो जिये हैं सुनो इस मुल्क की ख़ातिर
हम भी तो रात-दिन मरे इस देश के लिए...