भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमरा अंग-अंग में / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’
Kavita Kosh से
हमरा अंग-अंग मे
रोमांच हो गइल बा
आँखन में उन्माद
समा गइल बा
हमरा हृदय में
रँगल राखी के डोरा
के बान्ह देले बा?
आज आकाश के नीचे
जल-थल, फल-फूल, सब में,
हे मनहरन प्रभु,
हमरा मन के भला
केंगईं छिड़िक देले बाड़ऽ?
केंगईं पठा देले बाड़ऽ?
आज तहरा संगे
हमार कइसन खेल जमल बा?
केंगईं जमल बा?
बुझाते नइखें,
जे तहरा के हम पा गइल बानीं
कि अबहीं ले
तहरा खोजे में भटकत बानीं?
आज हमार आनंद
हमरा आँखन के लोर में
झरे खातिर
आकुल-व्यकुल हो उठल ब।
विरह आज
मधुर-मीठ बन के
मधुर रूप धर के
हमरा प्राण के
विभोर कर देले बा
विह्वल बना दे ले बा।