हमरा खिड़कीमे किऐक नहि हुलकैत अछि / सुस्मिता पाठक
ओहि समय जखन हम नेना रही
आ खाली तोतराइत रही
हमरा घरक छहरदेबालीक ओहि पारसँ
सिसकीक स्वर आतंकित करैत छल
ओहि हो-हल्लाक सूचीमे
टांकल छलि एकटा स्त्री
पिरामिडमे बन्न ममी जकाँ
नहि जानि के चोरा क’
ओकरामे थोड़ेक जीवन द’ देने छलैक
कतहुसँ जबरदस्ती पकड़ि क’ आनल गेल छिल ओ
पहिचानक लेल ओकरा लाल रंग सँ
चिन्हित क’ देल गेल छलैक
हमर तोताराइत बुद्धिकें बस इएह टा ज्ञात छल
आब जखन कि हम
काटि चुकल छी वयसक आधा गीरह
ओ स्वर आ हो-हल्ला अपन विविध रूपमे
हमरा घरक खिड़कीसँ होइत
निरन्तर टकराइत अछि देबालसँ
साँझकें बड़दक गरदनिक घंटी सुनाइ दैत अछि
ओकर सानी-कुट्टी लेल
गतिशील हाथक चूड़ीक खनक सुनाइ दैत अछि
केश खौंचि पछुआरमे पटकि देबाक
आ रोटी छीनि क’ थारी फेकबाक
भूख आ रोटीक बेचैनी
विचलित होइत रहल छी दशक-दशकसँ
हमरा खिड़कीमे किऐक नहि
हुलकैत अछि ओ स्त्री
एक बेर तड़पि क’
फानि क’ छहरदेबाली
ओकरा हमरा घरमे निश्चिते
निश्चिते आबि जएबाक चाही।