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हमरा तहरा सलाह भइल / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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हमरा तहरा सलाह भइल
कि एगो नाव पर बइठ के
खाली हमहीं-तूहीभें बइठ के,
अकारने कहीं चल दिआई।
चलते चलल जाई
बढ़ते चलल जाई।
कवन देश से कवन देश ले
हमनी के तीर्थयात्रा बा,
त्रिभुवन भर में
ई केहू जाने ना पाई!!
बिना कूल-किनर के
बीचे बीच समुन्दर में
आपन गीत सुनाएब।
स्वतंत्र लहरन लेखा
भाषा बंधन विहीन
हमरा स्वर-लहरी के
तू चुपचाप हँसत-मुसकत
सुनत रहिहऽ सुनत रहिहऽ।
अबहुँओं ओह नौका-विहर के
बेरा नइखे भइल का?
अबहुँओं कुछ कर्तव्य कर्म
बाकी रह गइल बा का?
होने देखऽ होने
सागर तीर पर साँझ उतर रहल बा।
मद्धिम भइल अँजोर में
समुन्दर पार के सब पंछी
आपन पाँख फड़ फड़ावत
अपना-अपन खोभेंत मेभें
लौट रहल बा।
तू घाट पर कब अइब?
नाव जवना रस्सी में बाँधल बा
तवन रस्सी कब कटब?
लंगर के जंजीर कब उठइब?
डूबत सूरज के
आखिरी किरिन के समान
हमनियों के नाव
रात के निरूद्देश्य यात्रा पर
कब निकलीं?
स्वच्छंद नौका विहार खातिर
हमनी का कब प्रस्थान करेब?