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हमरा भीतर पहाड़ अछि / दीप नारायण

Kavita Kosh से
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पहाड़ पर चढ़ैत
दू बर भेल देखैत छी हम
पृथ्वी केँ
अपन छाती पर अंगेजने
समुच्चा पहाड़ आ
पहाड़क तरहथी मे
सुस्ताइत दार्जिलिंग भेटैत अछि हमरा
हम ओकर पत्ती केँ छूबि क'
देखैत छी
आत्मविश्वास सँ भरल अछि
अंग अंग ओकर

पहाड़क कान्ह पर चलैत मेघ आ
निहुरल अकास
चारु भरि सँ बतियाइत
ग्रह, नक्षत्र, चान-तरेगन आ
ऋचाक उच्चारण करैत बसात
भेतैट अछि हमरा

देवदारक गाछ सँ अड़कल शून्य मे विचारमग्न
हम हेल रहल छलहुँ अकास मे
कि मस्तिष्क सँ टकराइत अछि एगो विचार
ओहि श्याम वर्णी मेघ केँ विचरैत देखि क'
कि कालीदासक विरही यक्ष
एहि मेघक कोनो वंशज के त' नहि बनौने छल
अपन समदिया आ
एहि अप्रतिम कल्पना केँ जिवैत
प्रसन्ताक वायुमंडल सँ घेरायल
आगु बढ़ैत छी हम

हमरा भेटैत अछि
कनिके आगु
एकटा झड़ना अपन आत्मकथा कहैत
गति दैत अछि हमरा झड़ना आ विस्तार सेहो
हम खहरि जाइत छी ओकरा भीतर आ
बढ़ल जाइत छी ओकरा मे डूबि क'
अपन गन्तव्य दिस
अदृश्य पदचिन्ह अंकित करैत

पहाड़ अछि
पहाड़ पर अन्हार अछि आ
हमरा हाथ मे कलम अछि
हम इजोत करबाक बेंओत मे छी

बाहर कम आ हमरा भीतर
बेसी अछि पहाड़
शान्त, स्थिर आ गंभीर
पहाड़ संकल्प बनि क' ठाढ़ अछि हमरा भीतर
भितरक पहाड़ मे सेहो लहलहाइत अछि
एगो दार्जिलिंग

एकास मे पहाड़ पर भेटैत अछि कविता आ
कविता मे खहरबा लेल आतुर नदी
पहाड़ सँ घुड़ि क' आएल छी हम
हृदय मे भरि क' लायल छी हम
पहाड़,जंगल, अकास ,गाछ-वृक्ष आ कविता
जीवाक लेल शेष जीवन।