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हमर अपन कविता / शिव कुमार झा 'टिल्लू'

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नहि ककरो सं आग्रह
नहि कोनो पूर्वाग्रह
नहि वाद
नहि प्रतिवाद
एक मात्र समन्वयवाद
एक मिथिला
एक जनक
एक माय;
कौशल्या बुझू वा कैकेयी
सबरी बुझू वा यशोदा
जाति त' रहबे करत
किएक त' एहि सं होइछ
जहानक सृजन
मुदा! नहि ब्राह्मण नहि सोलकन
जाति मात्र पुरुष-स्त्री
की एहेन मिथिलाक निर्माण संभव नहि
अवश्य होयत
आशावादी बनू
प्रतिवादी नहि
समताक आश
करू नहि उपहास
नहि उंच -नीचक आरि
नहि दिऔ ककरो गारि
जकरा मे जतेक छल शक्ति
सभ कयलक मातृभक्ति
आगाँ बढ़ि क' सोचू
सभक शोणित पोंछू
हमर पुरखा कयलनि गलती
बुझू ओ छलाह निस्सर
हुनका बुझियौन अस्सर
जेना पिसौनक जरती
कहि सकैत छियनि परती
मुदा मृतात्मा केँ
सीनियर सिटीजन केँ
नहि दिऔन गारि!!
किएक दैत छियनि
पुरखा केँ तारि?
अपन बाट त' सोझ राखू
अरिया सुधरल
पमरिया सुधरल
पमरिया मने जाति नहि
जाहि बोलीक एक्को धुर जमीन नहि
ओ कहरिया वेअह बक्खो
सएह पमरिया
केहेन अपन भाग्य
केहेन दुर्भाग्य
ओ फूहड़ बोलीक ललना सभ
हमरा सं पहिने साहित्यक
महँफा उठा पूरा आर्यावर्त दौरा देलक
हमर वैदेही गामे मे'
काहि काटि रहल छथि
हमर संस्कार अविरल कांता जकाँ...
आब एक्के मात्र आश
पकरने रहू समताक पतवारि
जेठक दुपहरिया हुए
वा रैन भदवारि
इतिहास देखू
हमर बाट मधमार्ग
एहि ठाम सभक सर्ग
नहि कोनो अपवर्ग
की औ भाय
की बेसी कहि देलहुँ आय?
नहि कहब
आत्मा सं जे अहाँ कहब
हम ओकरे सुनब
जौं नहि सुनि सकब त'
त' हारि माँ मैथिली केँ
अंतिम प्रणाम करैत
उछ्ह्वासक सीरक तानि लेब
ई मात्र हमर मोनक बात
नहि कोनो विशेष गाछक पात
कोनो धारक नहि सविता
मात्र " हमर अपन कविता"
नहि नीक लागय
त' करैत छी अर्धना
आब अंतिम प्रार्थना
नहि देब गारि
नीक नहि लागय त' लिऔ
मोन सं उजारि
त्रिपथगाक ज'ल सं पखारि
बाढनि सं बहारि