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हमसफ़र आया न महबूबे-नज़र याद आया / कांतिमोहन 'सोज़'
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हमसफ़र आया न महबूबे-नज़र याद आया।
याद आया तो फ़क़त अहदे-सफ़र याद<ref>सफ़र का संकल्प</ref> आया।।
मेरी मुश्किल है कि अपने से हटूँ तो कैसे
आबले<ref>फफोले</ref> पाँव के सूखे थे कि सर याद आया।
दिल का क्या कीजिए हर हाल में रंजीदा था
शाम आई तो उसे वक़्ते-सहर याद आया।
कोई वादा न कोई क़ौल न कोई इक़रार
याद कर लेंगे तेरा नाम अगर याद आया।
मेरे एहबाब को सूझी हो शरारत शायद
ये न समझो कि मुझे ज़ख़्मे-जिगर याद आया।
मोतियों से भरी उस सीप का मंज़र तौबा
याद करने से न कुछ होगा मगर याद आया।
ज़िन्दगी सोज़ ने ग़ुर्बत<ref>परदेस</ref> में बसर की लेकिन
जाने क्या बात थी इस मर्तबा घर याद आया।।
शब्दार्थ
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