भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमाम में सब नंगे / अवनीश सिंह चौहान

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पीली-लाल आँख कर आए
उन्मादी कुछ रंग-बिरंगे
उनकी सोच-समझ का फल है
अपने घर में सारे दंगे

उस बगिया की पौध नहीं हम
ना ही उनके पथ वाले
करते ना उनकी जयकारें
जो हैं ऊँचे रथ वाले

खारिज हैं उनकी सूची से
हम जैसे सारे मनचंगे

इतनी लम्बी जीभ लिए हैं
जो चाहें सो कह डालें
सच बोले तो धमकाते हैं
खूँखार भेड़िए पालें

जिसके संग चाहें कर देते
झट बीच सड़क पर वे पंगे

पंच हमारा चुप है लेकिन
हाथ तराजू झूल रहा
निर्णय में क्या समय लगेगा
खुद ही उसको भूल रहा

ऊपर से नीचे तक लगते
अब तो हमाम में सब नंगे