भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हमारा अपना सूरज / ग्योर्गोस सेफ़ेरिस

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

यह सूरज मेरा था और वह तुम्हारा था :हमने उसे बाँट लिया ।
कौन तकलीफ़ में है उस सुनहरी यवनिका के पीछे ? कौन मर रहा है ?
एक औरत चिल्लाई, अपनी सूखी छातियों को पीटकर : कायरो,
वे मेरे बच्चों को ले गए हैं और उन्हें टुकड़े-टुकड़े कर दिया है ।
तुमने उन्हें मार डाला, शाम के समय जुगनू देखते हुए
उस विचित्र दृष्टि से, जो अन्धे ध्यान में खो गई थी ।
वृक्ष की हरि रोशनी हाथ पर, जहाँ ख़ून सूख रहा था,
एक सोया हुआ योद्धा भाला पकड़े, जो उसके बग़ल में चमक रहा था ।

यह सूरज हमारा था । सुनहरे बेलबूटों के पीछे हमने कुछ नहीं देखा ।
बाद में दूत आए बेदम और गन्दे,
अस्फुट, अज्ञात शब्दों को बुदबुदाते हुए :
बीस दिन और रात बंजर भूमि और केवल काँटों पर
बीस दिन और रात घोड़ों के पेट से रक्त चुआते भागते रहे
और एक पल नहीं विश्राम के लिए और वर्षा जल पीने के लिए ।
तुमने उनसे कहा था, पहले आराम करें बात बाद में ;
रोशनी ने तुम्हें अन्धा कर दिया था ।
वे यह कहते हुए मर गए, ’हमारे पास समय नहीं है’,
                                      छुआ था उन्होंने सूरज की कुछ किरणों को ।
तुम भूल गए थे कोई कभी आराम नहीं करता है ।

एक औरत गुर्राई, ’कायरो !’ रात में कुत्ते की तरह ।
वह कभी तुम-सी ही सुन्दर रही होगी
नम होंठों से, त्वचा के नीचे जीवन्त शिराओं से
प्रेम से --
यह सूरज हमारा था ; तुमने इसे साबुत रखा ;
                             तुम मेरा अनुसरण करना नहीं चाहते थे ।
और तब मैंने सुनहरी यवनिका के पीछे इन वस्तुओं को जान लिया ।
हमारे पास समय नहीं है । दूत सही थे ।