हमारा आदमी / असद ज़ैदी
कृष्णा सोबती की याद में
न हमारा समय कहीं जाता है न उसका इतिहास
हम उसी में रहते हैं उसी के साथ — यही तो बात आपने की थी
और तीन दिन बाद ही रवाना हो गए। जनाब, इस दुनिया से
मैं लेकर बैठा हूँ अब यह आपकी किताब
अक्षर अभी भी उतने ही मोटे हैं, पन्ने पर शब्द-संख्या कम है
ताकि आप ख़ुद किसी तरह पढ़ सकें और किताब भी मोटी बने
आपके पास अपनी वजह, छापने वाले के पास अपनी
मैंने कहा — देखिए, यों ही तो होते हैं
लेखक और प्रकाशक के हित समान
आपसे हँसी रोकी न गई
फिर वही मुल्क का रोना
सदी का हिसाब
“ये देखो कितने बुरे लोग आकर बैठ गए हैं ऊपर
जाहिल असभ्य, सच कहूँ तो… बिल्कुल मामूली
बिल-कुल मा-मू-ली…
हरामज़ादे, इनको कुछ भी पता नहीं है
ये कैसी बुरी बातें कर रहे हैं !”
ग़ुस्से से आपका बुरा हाल था
मैंने कहा, कुछ अपना ख़याल रखिए
टी०वी० कम देखा कीजिए
बातों में किसी का ज़िक्र निकल आया कि चिरकुट है
“चिरकुट ! हा-हा, कितना ख़ूबसूरत लफ़्ज़ है !”
हँसते हँसते आप बेदम हुए जाते थे
फिर आप उसी बात पर आ गए — “देखो, कुछ लोग
हमारे मरने का इन्तिज़ार कर रहे हैं
और हम ठहरे हैं बड़े बेशरम और सख़्तजान !
… अच्छा असद, एक बात बताइए, हम चले गए
तो, ज़माने को छोड़िए, आप क्या कहेंगे?”
मैंने कहा—कहेंगे कि हमारा आदमी चला गया!
इस पर आपकी हँसी और वो लुत्फ़ जो आपने इसमें पाया
कहने को तो बहुत कुछ कहना था
आपका जाना सही समय पर जाना था
बुरा वक़्त, बस, अब शुरू हुआ चाहता है
05 अगस्त 2019