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हमारा दर्द हमारी दुखी नवा से लड़े / बशीर बद्र

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हमारा दर्द हमारी दुखी नवा से लड़े
सुलगती आग कभी सरफिरी हवा से लड़े

मैं जानता हूँ कि अंज़ाम कार क्या होगा
अकेला पत्ता अगर रात भर हवा से लड़े

समझना बादलों में घिर गया है मेरा जहाज़
लहू में तर कोई ताइर अगर हवा से लड़े

मेरे अज़ीज़ मुझे क़त्ल कर के फेंक आते
भला हुआ कि मेरे लब मेरी सदा से लड़े

सुनहरी मछलियाँ बादल में कौंध जाती हैं
बदन वही है जो बंदिश में भी क़बा से लड़े

तमाम रात की खूँरेज़ ज़ंग का हासिल
बहुत अँधेरा था अपने ही दस्तो-पा से लड़े

तुम्हारे शहर में क्या हो गया था जिसके लिये
’बशीर’ रात रहे रात भर ख़ुदा से लड़े

(१९७०-७१)