हमारा नगर / दिनेश्वर प्रसाद
हम उस नगर में रहते हैं जिसमें
रहने वाले शिव की बारात हैं
आपसे मिलें —
आप हैं शतमुख, आप हैं सहस्रमुख
आप सहस्रबाहु हैं
(आपने अपने अध्यवसाय से
अपना सहस्रकोटि महल बनाया है)
आप हैं अनास और आपकी नासा
बहुत ऊँची है
(कितनी प्रशंसा है आपकी मीनारनुमा नासा की !)
आपसे मिलें —
आपमें पूर्वजों का रक्त बहुत तीव्र है
दूसरों के माथों पर
मार कर छलाँगें आप बहुत दूर निकले हैं
आप सबों से मिलें –
आप हैं नीलमुख व्याघ्र, आप हैं रक्तमुख शृगाल,
आप...
सड़क भर मानुषिक मुखौटाधारी नागरों को
देख कर भ्रम में कहीं आप तो पड़ेंगे नहीं ?
हम उस नगर में रहते हैं जिसमें
शोषण का राजमार्ग, ईमानदारी की
बनारसी गलियाँ हैं; जगह-जगह पर
ऊँचे आदर्शों के स्तूप हैं, आँसुओं की
बड़ी-बड़ी झीलें हैं, नरकँकालों के
टीले हैं....
(जिसमें
हर चौराहे पर सत्य विजय घोषणा
करते हैं भोंपू
और ख़ूब तेज़ी से
साबुत नरों को अपनी कारों के पहियों से
रौंदते हुए वीर किन्नर बढ़ जाते हैं...)
देखा है आपने हमारे नगर को?
इसके निवासियों को कुतुब मीनार का
बहुत ज़्यादा शौक है; चान्दी की सीढ़ियाँ
लगाकर वे चढ़ते हैं; बौने भी हों तो क्या
कन्धे चढ़ने का बहुत ज़्यादा शौक़ है
हम उस नगर में रहते हैं जिसमें
दुख की आवाज़ दीवार सुन सकती है
पैर के फफोलों को दूब चूम सकती है
बिजली के बल्ब प्रकाश दे सकते हैं
लोहे के खम्भे भी मार्ग बता सकते हैं
किन्तु आदमी? (हमारा नगर पण्डित
‘आदमी’ की व्युत्पत्ति ‘आमदनी’ से करता है)
— आवाज़ों को निगलनेवाला अजगर !
भौंहें टेढ़ी कर
विषवाण छोड़ने वाला धनुर्धर !)
नरों, वा-नरों, किन्नरों के इस नगर को
देखा है आपने ?
लाल कुहासों से भरी हुई
शाम
फ्यूजीयामा पर
फूल खिल आए हैं
गहरी नीन्द सोया है
हमारा यह नगर !