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हमारी आँखों के ख़्वाबों से दूर ही रक्खे / द्विजेन्द्र 'द्विज'

हमारी आँखों के ख़्वाबों से दूर ही रक्खे

सवाल ऐसे जवाबों से दूर ही रक्खे


सुलगती रेत पे चलने से कैसे कतराते

जो पाँवों बूट—जुराबों से दूर ही रक्खे


हुनर तो था ही नहीं उनमें जी—हुज़ूरी का

इसीलिए तो ख़िताबों से दूर ही रक्खे


तमाम उम्र वो ख़ुशबू से ना—शनास रहे

जो बच्चे ताज़ा गुलाबों से दूर ही रक्खे


वो ज़िन्दगी के अँधेरों से लड़ते पढ़—लिख कर

इसीलिए तो किताबों से दूर ही रक्खे


हमारा सानी कोई मयकशी में हो न सका

अगरचे सारी शराबों से दूर ही रक्खे


ये बच्चे याद क्या रखेंगे ‘द्विज’, बड़े हो कर

अगर न खून—ख़राबों से दूर ही रक्खे