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हमारी चेतना पर आँधियाँ हाबी न हो जायें / अशोक रावत

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हमारी चेतना पर आँधियाँ हाबी न हो जायें,
कहीं ज़ुल्मो सितम सहने के हम आदी न हो जायें.



कहीं ऐसा न हो जाये भुला ही दें परिंदों को,
कहीं ये पेड़ कटने के लिये राज़ी न हो जायें.



डुबो दें बीच दरिया में हमारी नाव ले जा कर,
तमाशा देखनेवाले कहीं माँझी न हो जायें.



हमें डर है अहिंसा,प्रेम, करुणा, दोस्ती, ईमान,
बदलते दौर में अलफ़ाज़ ये गाली न हो जायें.



कहीं ये गौडसे इतिहास का नायक न हो जाये,
कहीं मायूस इस इतिहास से गाँधी न हो जायें.