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हमारी जागती आँखों में ख़्वाब सा क्या था / ज़फ़ीर-उल-हसन बिलक़ीस
Kavita Kosh से
हमारी जागती आँखों में ख़्वाब सा क्या था
घनेरी शब में उगा आफ़्ताब सा क्या था
कहीं हुई तो थी हलचल कहीं पे गहरे में
बिगड़ बिगड़ के वो बनता हबाब सा क्या था
तमाम जिस्म में होती हैं लरज़िशें क्या क्या
सवाद-ए-जाँ में ये बजता रबाब सा क्या था
हमारी प्यास पे बरसा अंधेरे उजियाले
वो कुछ घटाओं सा कुछ माहताब सा क्या था
ज़रा सी देर भी रूकता तो कुछ पता चलता
वो रंग था कि थी ख़ुशबू सहाब सा क्या था
ये तिश्नगी का सफ़र कट गया है जिस के तुफ़ैल
वो दश्त दश्त छलकता सराब सा क्या था
तमाम उम्र खपाया है जिस में सर ‘बिल्क़ीस’
भला वो बे-सर-ओ-पा सी किताब सा क्या था