हमारी बेख़ुदी अब उस मक़ाम पर है मियाँ / सुरेश चन्द्र शौक़
हमारी बेख़ुदी अब उस मक़ाम पर है मियाँ
जहाँ किसी को न अपनी ख़बर है मियाँ
सफ़र है कितना कड़ा फिर भी राह—रौ <ref>राही</ref>लाखों
बड़ी अजीब महब्बत की रहगुज़र है मियाँ
कोई रफ़ीक़<ref>मित्र</ref> न हमराज़—ओ—हमसफ़र कोई
बड़ा ही तन्हा ग़म—ए—ज़ात <ref>निजी दुख</ref>का सफ़र है मियाँ
भटकते फिरते हो अपनी तलाश में नाहक़
कभी जो ख़त्म न होगा ये वो सफ़र है मियाँ
ये और बात है हम मुँह से कुछ नहीं कहते
हर एक बात की लेकिन हमें ख़बर है मियाँ
मुखौटे लोग न बदलें तो काम कैसे चले
जिसे तू ऐब समझता है वो हुनर है मियाँ
हर एक सम्त <ref>ओर</ref>वही रात की सियाही है
यही सहर<ref>सुबह</ref>है हमारी तो क्या सहर है मियाँ
अज़ीज़ <ref>प्रिय</ref>क्यों है तुझे पत्थरों का खेल ऐ ‘शौक़’!
तू यह तो सोच कि शीशे का तेरा घर है मियाँ