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हमारी बेचैनी उस की पलकें भिगो गई है / साबिर
Kavita Kosh से
हमारी बेचैनी उस की पलकें भिगो गई है
ये रात यूँ बन रही है जैसे कि सो गई है
दिए थे काल घटा को हम ने उधार आँसू
किसे कहें अब कि सारी पूँजी डुबो गई है
हम उस की ख़ातिर बचा न पाएँगे उम्र अपनी
फ़ुज़ूल-ख़र्ची की हम को आदत सी हो गई है
वो एक साहिल कि जिस पे तुम ख़ुद को ढूँढते हो
वहीं पे इक शाम मेरे हिस्से की खो गई है
मैं यूँ ही मोहरे बढ़ा रहा हूँ झिझक झिझक कर
ख़बर उसे भी है बाज़ी वो हार तो गई है