हमारे इर्द-गिर्द / महेन्द्र भटनागर
ओ करोड़ों मज़लूमो !
तुम्हें
अभी फुटपाथों से
छुटकारा नहीं मिला,
खौलते ख़ून के समुन्दर में
तैरते-तैरते
किनारा नहीं मिला !
बीसवीं शताब्दी के
इस आँठवें दशक में भी
सिर पर
खुला आसमान है,
नीचे
नंगी धरती।
सूनी निगाहें
ठण्डी आहें
विकलांग निरीहता
सर्दी, बरसात, आँधी !
मोटे-मोटे
खादीपोश
बदकिरदार
व्यापारियों-पूँजीपतियों,
मकान-मालिकों,
कॉलोनी-धारियों,
वकील-नेताओं के
मुँह में
यथा-पूर्व
विराजमान है -- 'गाँधी'!
बँगलों और कोठियों में
दीवारों पर
टँगे हैं गाँधी !
(या सलीब पर लटके हैं गाँधी!)
तिकड़मी मस्तिष्क के
बद-मिज़ाज
नये भारत के ये 'भाग्य-विधाता'
'एम्बेसेडर' में
धूल उड़ाते
मज़लूमों पर थूकते
मानवता के रौंदते
अलमस्त घूमते हैं,
किंचित सुविधाओं के इच्छुक
उनके चरण चूमते हैं !
मेरी पूरी पीढ़ी हैरान है !
नेतृत्व कितना बेईमान है !