भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमारे घर में आना भूल जाएं / राज़िक़ अंसारी
Kavita Kosh से
हमारे घर में आना भूल जाएं
ग़म अपना आशिना भूल जाएं
सफ़र इस बार मक़तल की तरफ़ है
मुझे कर के रवाना भूल जाएं
चलो फिर दिल के रस्ते खोलते हैं
चलो जो है पुराना भूल जाएं
कोई मतलब नहीं फिर दोस्ती का
अगर वो दिल दुखाना भूल जाएं
कई लोगों को हमने खो दिया है
वफ़ाएं आज़माना भूल जाएं