भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
हमारे दरपए-ईज़ा है चर्खे-बदश्आर अब भी / मेला राम 'वफ़ा'
Kavita Kosh से
हमारे दरपए-ईज़ा है चर्खे-बदश्आर अब भी
की हम हैं पामाले-गर्दिशे-लैलो-निहार अब भी
नमूना दश्ते-वहशत का है अपना लाला-ज़ार अब भी
बहार अपनी है ग़ैरों की खिजां से शर्मसार अब भी
गुज़श्ता तजरिबों से भी सबक़ हम कुछ नहीं सीखे
वही है एतबारे-वादाए-बेएतबार अब भी
ख़ुशामद अब भी शेवा कासा-लेसाने अज़ल का है
घिसी जाती है सजदों से ज़बीने-इंक्सार अब भी
सितम तोड़े हैं सालो-माह जिस ने ऐ 'वफ़ा' हम पर
उसी से हैं निगाहे-लुत्फ़ के उम्मीदवार अब भी।